दीपावली के संदर्भ और जीवन मूल्य

दीपावली का महापर्व स्नेह, समानता, उत्साह और स्वच्छता से भरा है। भूतकाल में इसका स्वरूप उल्लास एवं मौज मस्ती और स्नेह का था। भूतकाल में ग्रामीण जन-जीवन में लिपे-पुते घर, माण्डने और सजी संवरी चौपालें थी। वर्षा के पश्चात् हरी भरी प्रकृति का सुन्दर उपहार सब कुछ सच्चा जीवन था। दीपावली का चरण स्पर्श और अमोघ आशीर्वाद, हाथ की बनी मिठाईयों की मिठास और घर-घर दीपों को रखने का क्रम, मिलन तथा शोक, अवसाद व अन्धकार में डूबे जनों के घर-जीवन में दीपक रखने के भाव सब कुछ 'वसुधैवकुटुम्बकम' का जीवन था। तमसो माँ ज्योतिर्गमय के मंत्र का सच्चा स्वरूप आत्मीयता के साथ प्रसारित करना यही इस महापर्व का औचित्य था।


 परन्तु अब देखती हूं कि इस पर्व का औचित्य बदल गया है। सन्दर्भो में वे परम्पराऐं, उद्देश्य विलुप्त होते जा रहे हैं। जीवन में माटी के दीप और उसकी लौका प्रकाश तथा रंगोली भौतिकता की चकाचौंध ने सब कुछ परिवर्तित कर दिया। हम कहते हैं जमाना बदला परन्तु ऐसा वास्तव में नहीं है बदली हमारी सोच और हमारे जीवन जीने के मूल्य हैं और इसी ने हमारे दीप त्यौहार को हम से अलग कर दिया है। दीप पर्व की सच्ची भावना को हमारी पीढ़ी अपने जीवन में किसी प्रकार से उतारेगी और जी पायेगी यह सन्दर्भ बहुत कुछ हमें सोचने और संभलने को विवश करता है।